उच्च शिक्षा की साख: स्कूल हैं, विश्वविद्यालयों के मर्ज का इलाज

उच्च शिक्षा की साख, सम-सामयिक राष्ट्रीय संदर्भिता तथा अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता इस समय असमंजस की स्थिति में है। हमारे पास श्रेष्ठ स्तर के संस्थान हैं, भले ही वे विदेशी संस्थाओं द्वारा किये गए सर्वेक्षणों में महत्वपूर्ण स्थान न पाते हों।
चिंता का विषय यह है कि उनकी गुणवत्ता बढ़े और शोध और नवाचार में उनका योगदान अपेक्षित स्तर पर राष्ट्र तथा विश्व के समक्ष प्रस्तुत हो। दस निजी तथा दस सरकारी विश्वविद्यालयों के लिए दस हजार करोड़ के प्रावधान किये जाने का स्वागत होना चाहिए। साथ ही साथ विद्वत वर्ग में उन तत्वों पर गहन विमर्श भी होना चाहिए कि कोई संस्थान अपनी साख और प्रतिष्ठा कैसे अर्जित करता है? यदि उसमें किन्हीं कारणों से कमी आई हो तो इन्हें पुन: प्राप्त कैसे किया जा सकता है? आर्थिक साधन और संसाधन आवश्यक है परंतु और भी बहुत कुछ चाहिए जो सुधार के प्रयासों को जीवंत कर सके ! इसमें पिछले एक सौ वषों के अनुभव से बड़ा मार्ग-दर्शक क्या हो सकता है? वर्तमान स्थिति तथा चुनौती को एक वाक्य में यों समेटा जा सकता है: क्या हम उच्च शिक्षा संस्थानों को साख, शोध और कार्य संस्कृति में 1960 के स्तर पर पुन: ला सकते सकते हैं? उस समय इलाहाबाद, आगरा, अलीगढ, पटना, चेन्नई, मुंबई, कलकत्ता में स्थित विश्वविद्यालयों; अहमदाबाद, बनारस और नागपुर में स्थापित विद्यापीठों; की जो साख थी, वह आज कहां है? उस समय के यशस्वी कुलपतियों और शोध तथा सर्जन में कालजयी योगदान देनेवालों के नाम सबसे पहले उभरते हैं। चुनौती उस स्तर के नेतृत्व को ढूढ़ने, और उन पर विश्वास करने की है। सरकार ने इस आवश्यकता को समझा है और आइआइएम तथा आइआइटी के लिए नई व्यवस्था की है। विश्वविद्यालय का नेतृत्व वही कर सकता है जिसने अपने बौद्धिक योगदान से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली हो और जिसकी स्वीकार्यता इससे ही हो, न की पद से! ऐसा अकादमिक कुलपति स्वयं की लगन और कर्मठता से उदाहरण प्रस्तुत करता है, अपने सहयोगियों को सम्मान और सुविधा देने में कोताही नहीं करता है, उसका सहयोग तथा स्नेह सभी को सामान भाव से उपलब्ध होता है। वह जाति, क्षेत्र, वैचारिक प्रतिबद्धता इत्यादि से अपने को कोसों दूर रखता है। विश्वविद्यालय की वैश्विकता बनाए रखना उसके मष्तिष्क में सदा प्राथमिकता पाता है। क्या सरकार उन बीस विश्वविद्यालयों के लिए सही नेतृत्व प्रदान कर सकेगी, या वहां भी नियुक्तियों के लिए ‘प्रार्थियों’ को नेताओं, नौकरशाहों तथा शैक्षिक मठाधीशों के चक्कर लगाने की प्रवृत्ति को जारी रहने देगी? यह निर्णय उन संस्थानों में उच्च अपेक्षाओं वाले युवाओं का भाग्यविधाता भी होगा। 1यदि दशकों तक देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 40-50 प्रतिशत पद रिक्त रहें तो गुणवत्ता सुधार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय यदि सही ढंग से कार्य कर रहे होते तो इंजीनियरिंग तथा प्रबंधन के सैकड़ों संस्थान हर साल बंद न हो रहे होते। देश में तैयार तकनीकी तथा प्रबंधन के स्नातकों में बीस प्रतिशत से कम योग्य पाए जाते हैं ! जो योग्य नहीं पाए जाते हैं उनका भविष्य बर्बाद करने के लिए कौन जिम्मेवार है? राज्य सरकारें नए विश्वविद्यालय खोल देती हैं मगर बाद में वे लगभग दयनीय स्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रखने को बाध्य हो जाते हैं। उन भाग्यशाली बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों में इन महाविद्यालयों तथा भारत के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके ही तो युवा आयेंगे और जिस स्तर की गुणवत्ता उन्हें वहां मिली होगी वही यहां की गुणवत्ता और साख तय करेगी। पांच दशकों के व्यतिगत अनुभव के आधार पर यह कहने का साहस किया जा सकता है कि इस देश में केवल 30-35 प्रतिशत बच्चों को ही स्वीकार्य स्तर की स्कूल शिक्षा मिल पाती है। यह सर्व-स्वीकार्य तथ्य है कि जब तक स्कूलों में अपेक्षित और उचित गुणवत्ता वाली शिक्षा का प्रतिशत 70-80 के आस-पास नहीं लाया जाएगा, उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार आधा-अधूरा ही संभव होगा। देश का लक्ष्य केवल बीस विश्वविद्यालयों के सुधार तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता है। स्कूलों में नकल, विज्ञान में बिना प्रयोग किये ही हजारों/लाखों विद्यार्थियों का बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाना अब कोई व्यवस्था में किसी को प्रभावित नहीं करता है। कोई देश अपनी युवा-शक्ति से ऐसे खिलवाड़ शायद ही करता होगा! कुछ दिन पहले यह आंकड़े आये हैं कि देश में करीब पंद्रह लाख स्कूल अध्यापक अप्रशिक्षित हैं, जिन्हें अब ऑनलाइन प्रशिक्षण दिया जाएगा। शिक्षा में हर स्तर पर गुणवत्ता का मूल आधार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता से निर्धारित होता है। ऐसे 92फीसद संस्थान निजी हाथों में जा चुके हैं और वहां क्या होता है यह सभी जानते हैं। राज्य सरकारों नें अपने शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। कई राज्यों में तो नियमित नियुक्तियां तथा पदोन्नति पिछले तीन-चार दशकों से बंद है! प्रतिनियुक्ति पर जो दौड़-धूप कर नियुक्ति करा ले, वही सरकारों का प्रिय बना रहता है। इस पर त्वरित पुनर्विचार आवश्यक है। राज्य सरकारें स्कूलों तथा अपने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभाएं, केंद्र सरकार नियामक संस्थाओं को दूर रखे तथा धन के साथ योग्य विद्वानों को ढूंढे और उन पर विश्वास करे तो गुणवत्ता सुधार में यह बीस विश्वविद्यालय पहली कड़ी बन सकते हैं।च्च शिक्षा की साख, सम-सामयिक राष्ट्रीय संदर्भिता तथा अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता इस समय असमंजस की स्थिति में है। हमारे पास श्रेष्ठ स्तर के संस्थान हैं, भले ही वे विदेशी संस्थाओं द्वारा किये गए सर्वेक्षणों में महत्वपूर्ण स्थान न पाते हों। चिंता का विषय यह है कि उनकी गुणवत्ता बढ़े और शोध और नवाचार में उनका योगदान अपेक्षित स्तर पर राष्ट्र तथा विश्व के समक्ष प्रस्तुत हो। दस निजी तथा दस सरकारी विश्वविद्यालयों के लिए दस हजार करोड़ के प्रावधान किये जाने का स्वागत होना चाहिए। साथ ही साथ विद्वत वर्ग में उन तत्वों पर गहन विमर्श भी होना चाहिए कि कोई संस्थान अपनी साख और प्रतिष्ठा कैसे अर्जित करता है? यदि उसमें किन्हीं कारणों से कमी आई हो तो इन्हें पुन: प्राप्त कैसे किया जा सकता है? आर्थिक साधन और संसाधन आवश्यक है परंतु और भी बहुत कुछ चाहिए जो सुधार के प्रयासों को जीवंत कर सके ! इसमें पिछले एक सौ वषों के अनुभव से बड़ा मार्ग-दर्शक क्या हो सकता है? वर्तमान स्थिति तथा चुनौती को एक वाक्य में यों समेटा जा सकता है: क्या हम उच्च शिक्षा संस्थानों को साख, शोध और कार्य संस्कृति में 1960 के स्तर पर पुन: ला सकते सकते हैं? उस समय इलाहाबाद, आगरा, अलीगढ, पटना, चेन्नई, मुंबई, कलकत्ता में स्थित विश्वविद्यालयों; अहमदाबाद, बनारस और नागपुर में स्थापित विद्यापीठों; की जो साख थी, वह आज कहां है? उस समय के यशस्वी कुलपतियों और शोध तथा सर्जन में कालजयी योगदान देनेवालों के नाम सबसे पहले उभरते हैं। चुनौती उस स्तर के नेतृत्व को ढूढ़ने, और उन पर विश्वास करने की है। सरकार ने इस आवश्यकता को समझा है और आइआइएम तथा आइआइटी के लिए नई व्यवस्था की है। विश्वविद्यालय का नेतृत्व वही कर सकता है जिसने अपने बौद्धिक योगदान से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली हो और जिसकी स्वीकार्यता इससे ही हो, न की पद से! ऐसा अकादमिक कुलपति स्वयं की लगन और कर्मठता से उदाहरण प्रस्तुत करता है, अपने सहयोगियों को सम्मान और सुविधा देने में कोताही नहीं करता है, उसका सहयोग तथा स्नेह सभी को सामान भाव से उपलब्ध होता है। वह जाति, क्षेत्र, वैचारिक प्रतिबद्धता इत्यादि से अपने को कोसों दूर रखता है। विश्वविद्यालय की वैश्विकता बनाए रखना उसके मष्तिष्क में सदा प्राथमिकता पाता है। क्या सरकार उन बीस विश्वविद्यालयों के लिए सही नेतृत्व प्रदान कर सकेगी, या वहां भी नियुक्तियों के लिए ‘प्रार्थियों’ को नेताओं, नौकरशाहों तथा शैक्षिक मठाधीशों के चक्कर लगाने की प्रवृत्ति को जारी रहने देगी? यह निर्णय उन संस्थानों में उच्च अपेक्षाओं वाले
युवाओं का भाग्यविधाता भी होगा। 1यदि दशकों तक देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 40-50 प्रतिशत पद रिक्त रहें तो गुणवत्ता सुधार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय यदि सही ढंग से कार्य कर रहे होते तो इंजीनियरिंग तथा प्रबंधन के सैकड़ों संस्थान हर साल बंद न हो रहे होते। देश में तैयार तकनीकी तथा प्रबंधन के स्नातकों में बीस प्रतिशत से कम योग्य पाए जाते हैं ! जो योग्य नहीं पाए जाते हैं उनका भविष्य बर्बाद करने के लिए कौन जिम्मेवार है? राज्य सरकारें नए विश्वविद्यालय खोल देती हैं मगर बाद में वे लगभग दयनीय स्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रखने को बाध्य हो जाते हैं। उन भाग्यशाली बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों में इन महाविद्यालयों तथा भारत के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके ही तो युवा आयेंगे और जिस स्तर की गुणवत्ता उन्हें वहां मिली होगी वही यहां की गुणवत्ता और साख तय करेगी। पांच दशकों के व्यतिगत अनुभव के आधार पर यह कहने का साहस किया जा सकता है कि इस देश में केवल 30-35 प्रतिशत बच्चों को ही स्वीकार्य स्तर की स्कूल शिक्षा मिल पाती है। यह सर्व-स्वीकार्य तथ्य है कि जब तक स्कूलों में अपेक्षित और उचित गुणवत्ता वाली शिक्षा का प्रतिशत 70-80 के आस-पास नहीं लाया जाएगा, उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार आधा-अधूरा ही संभव होगा। देश का लक्ष्य केवल बीस विश्वविद्यालयों के सुधार तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता है। स्कूलों में नकल, विज्ञान में बिना प्रयोग किये ही हजारों/लाखों विद्यार्थियों का बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाना अब कोई व्यवस्था में किसी को प्रभावित नहीं करता है। कोई देश अपनी युवा-शक्ति से ऐसे खिलवाड़ शायद ही करता होगा! कुछ दिन पहले यह आंकड़े आये हैं कि देश में करीब पंद्रह लाख स्कूल अध्यापक अप्रशिक्षित हैं, जिन्हें अब ऑनलाइन प्रशिक्षण दिया जाएगा। शिक्षा में हर स्तर पर गुणवत्ता का मूल आधार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता से निर्धारित होता है। ऐसे 92फीसद संस्थान निजी हाथों में जा चुके हैं और वहां क्या होता है यह सभी जानते हैं। राज्य सरकारों नें अपने शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। कई राज्यों में तो नियमित नियुक्तियां तथा पदोन्नति पिछले तीन-चार दशकों से बंद है! प्रतिनियुक्ति पर जो दौड़-धूप कर नियुक्ति करा ले, वही सरकारों का प्रिय बना रहता है। इस पर त्वरित पुनर्विचार आवश्यक है। राज्य सरकारें स्कूलों तथा अपने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभाएं, केंद्र सरकार नियामक संस्थाओं को दूर रखे तथा धन के साथ योग्य विद्वानों को ढूंढे और उन पर विश्वास करे तो गुणवत्ता सुधार में यह बीस विश्वविद्यालय पहली कड़ी बन सकते हैं।

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